दिल की अभिव्यक्ति

दिल की अभिव्यक्ति
दिल की अभिव्यक्ति

Tuesday, February 17, 2009

सफ़र
कितनी दूर अभी है चलना, इस जीवन के गाँव में
गम की रेत पर चलते- चलते छाले पड़ गये पाँव में!!
दो साँसों में दूरी कितनी, कितना और तड़पना है
ज़ीवन की बगिया ये कैसी,मिलना और बिछ्ड़ना है
पार करूँ कैसे भवसागर, पानी भर गया नाव में!!
कितनी दूर अभी है चलना,-------------
कालचक्र ने कैसी निर्मम ऐसी रीति बनाई है
जिन हाथों में खेला बचपन अग्नि उन्ही से पाई है
रोयें आखें सिसके धड़कन, अजब न्याय के घाव में
कितनी दूर अभी है चलना,-------------

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
ग़ज़ल
गर्दिशों में हमदमों की भीड़ जब छंटती गई
ज़िंदगानी तब हकीकत में नज़र आने लगी
क्यों कहें,किससे कहें,कैसे कहें ये हाले दिल
ज़िंदगी अब मौत से सस्ती नज़र आने लगी !!
हम चले थे जिस तरफ़ इंसानियत को ढूढ्ने
हर तरफ़ हैवानियत बसती नज़र आने लगी
फिर समंदर में कहीं जब हलचलें मचने लगी
इक और कश्ती डूबती हमको नज़र आने लगी
ज़ेहनों से मिट रहा है अब इंसानियत का रंग
हर शख्सियत इक आग में जलती नज़र आने लगी


ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

चूहा और आदमी

ऐ खुदा कुदरत में ये कैसे करिश्में हो गये
आदमी चूहों के जींस एक जैसे हो गये !!
दुर्दशा मानव की देख ब्रहमा भी अब रोने लगे
वो सुबक कर क्रोध से विष्नु से ये कहने लगे
कि अब तलक इक भी चूहा बन ना पाया आदमी
फिर आदमी चूहों के जैसे डर के क्यों रहने लगे !!
क्या बतायें साइंटिस्ट भी काम कैसा कर रहे
आदमी चूहों के दम पर शोध पूरा कर रहे
आदमी चूहों के जैसा काम भी करने लगा
दिन दहाड़े अंगुलियों से जेब कुतरने लगा !!
धीरे-धीरे ही कुतर कर देश पूरा खा गया
पहन के खद्दर की टोपी किस कद्र इतरा गया
आदमी -चूहों गुण और आदतें भी एक है
गंध , डी एन ए , प्रोटीन हर तरह से एक है!!
चूहे फिर भी कुछ दशा में आदमी से भिन्न है
आदमी चूहों से ज़्यादा दयनीय और निम्न है
चूहे कभी ज्यादाद को, निज भाई से लड़ते नहीं
शर्म से जब सर झुके, ये काम वो करते नहीं !!
सिद्दि विनायक की सवारी आदमी हो जायेगा
चूहा बैठेगा किनारे, और मोदक खायेगा !!

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
(13/12/2004)

Sunday, February 15, 2009

दूरी ?

पापा कितनी दूर गये तुम, कैसे तुम्हें बुलायें हम
हर पल तेरी याद सताती, किसको हाल सुनायें हम !!
तेरी यादों का इक झोंका, हर पल हमें रुलाता है
तेरी बाहों का वो झूला ,अब न हमें झुलाता है
ना जाने तुम क्यों रुठे हो,कैसे तुम्हें मनायें हम
पापा कितनी दूर------------------------------
सूनी आखों से कमरे की, छ्त को देखा करती हूँ
हर क्षण हर कोने में घर के तुमको ढूंढा करती हूँ
छुपा-छुपी का खेल ये देखो अब तो खेल न पायें हम
पापा कितनी दूर------------------------------
तेरी यादों का मेला जब, अंगनाई में लगता है
बिंदिया माँ के शीश ना सोहे,माथा सूना लगता है
तुम मेरे जीवन के प्राण, तेरे बिन घबरायें हम
पापा कितनी दूर------------------------------
काल चक्र के क्रूर करों नें तुमको हमसे छीन लिया
ईश्वर को भी लाज ना आई, ये कैसा अपराध किया
जब ईश्वर ही अपराधी हो, किसको सज़ा सुनायें हम
पापा कितनी दूर------------------------------
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
(19/01/2004)

Friday, February 13, 2009

अगला जन्म ?

अब ज़िन्दगी की नाव डूबी जा रही मँझधार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
गर दुम हिलाना ज़िन्दगी तो क्यों न हम कुत्ता बनें ?
मौन रह कर रोटी खाना तो क्यों न हम कुत्ता बनें ?
विरोध कि अभिव्यक्ति मुश्किल हो रहि संसार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
श्वान की किस्मत पे मुझको रश्क़ अब आने लगा
बे इरादा दुम हिले अब भाव ये भाने लगा
खा रहा मख्ख्नन और रोटी, घूमता है कार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
भौंकनें के भाव मे भी यस सर आयेगा जब
खुश रहे मालिक हमारा मीट खिलवायेगा तब
बारह सालह् ज़िन्दगी कट जायेगी आराम में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
हे प्रभु, कुत्ता बनूँ वरदान ये दे दीजिये
खूब मोटी खूब लम्बी पूँछ ऐसी दीजिये
दुम सदा हिलती रही साहब की पुचकार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
हे प्रभु,आदमी की जात में कुत्ते के गुण दे दीजिये
नीली आँखे झबरे बाल दुम बडी दे दीजिये
भौंक पायें या ना पायें हम तो इस सँसार में
पर हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
कुत्ता बनेगा अब गुरु चेला बनेगा आदमी
दुम हिलाने की कला कुत्ते से सीखे आदमी
ये कला ऐसी हे जो जाती नहीं बेकार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
दुम हिलाना क्वालिटी है इस पर भी सर्किल बने
कौन कितना दुम हिलाये शोध का मैटर बने
शोध पूरा हो न हो पर दुम हिले रफ़्तार में
पर हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !! ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

अगला जन्म ?

अब ज़िन्दगी की नाव डूबी जा रही मँझधार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
गर दुम हिलाना ज़िन्दगी तो क्यों न हम कुत्ता बनें ?
मौन रह कर रोटी खाना तो क्यों न हम कुत्ता बनें ?
विरोध कि अभिव्यक्ति मुश्किल हो रहि संसार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
श्वान की किस्मत पे मुझको रश्क़ अब आने लगा
बे इरादा दुम हिले अब भाव ये भाने लगा
खा रहा मख्ख्नन और रोटी, घूमता है कार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
भौंकनें के भाव मे भी यस सर आयेगा जब
खुश रहे मालिक हमारा मीट खिलवायेगा तब
बारह सालह् ज़िन्दगी कट जायेगी आराम में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
हे प्रभु, कुत्ता बनूँ वरदान ये दे दीजिये
खूब मोटी खूब लम्बी पूँछ ऐसी दीजिये
दुम सदा हिलती रही साहब की पुचकार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
हे प्रभु,आदमी की जात में कुत्ते के गुण दे दीजिये
नीली आँखे झबरे बाल दुम बडी दे दीजिये
भौंक पायें या ना पायें हम तो इस सँसार में
पर हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
कुत्ता बनेगा अब गुरु चेला बनेगा आदमी
दुम हिलाने की कला कुत्ते से सीखे आदमी
ये कला ऐसी हे जो जाती नहीं बेकार में
हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !!
दुम हिलाना क्वालिटी है इस पर भी सर्किल बने
कौन कितना दुम हिलाये शोध का मैटर बने
शोध पूरा हो न हो पर दुम हिले रफ़्तार में
पर हे प्रभु, कुत्ता बनाना मुझको अगली बार में !! ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

Thursday, February 12, 2009

गज़ल
हर दर्द कलेजे में छिपाता चला गया
फिर भी वफ़ा का साथ निभाता चला गया
दीवारें खिँच रहीं थी जब नफ़रत के दौर में
में उनको मोहब्बत से गिराता चला गया !!
हर शख्स परेशाँ है अब पैसे की दौड़ में
मैं मुफलिसी से इश्क़ निभाता चला गया
बेइंताही भीड़ है जीवन में गमों की
हसँता हुआ मैं जग को हँसाता चला गया !!
जीवन में अन्धेरे घिरे जब आस न बची
हर साँस में, मैं आस जगाता चला गया !!
उम्मीद का दामन पकड़िये और ना छोड़िये
ये बात पते की मैं बताता चला गया !!
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

गज़ल
हर दर्द कलेजे में छिपाता चला गया
फिर भी वफ़ा का साथ निभाता चला गया
दीवारें खिँच रहीं थी जब नफ़रत के दौर में
में उनको मोहब्बत से गिराता चला गया !!
हर शख्स परेशाँ है अब पैसे की दौड़ में
मैं मुफलिसी से इश्क़ निभाता चला गया
बेइंताही भीड़ है जीवन में गमों की
हसँता हुआ मैं जग को हँसाता चला गया !!
जीवन में अन्धेरे घिरे जब आस न बची
हर साँस में, मैं आस जगाता चला गया !!
उम्मीद का दामन पकड़िये और ना छोड़िये
ये बात पते की मैं बताता चला गया !!
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

Poem

गज़ल
जिगर की टीस को तुम कब तलक दिल में दबाओगे
उमड़ता अश्क का सावन है ,कैसे तुम छिपाओगे !!
अभी तो इश्क़ का आगाज़ है और दूर मन्ज़िल है
अभी से तुम परेशाँ हो अभी से लड्खड़ाओगे !!
ज़ुबाँ खामोश है पर लब तुम्हारे थरथराते हैं
वफ़ा की दास्तां दुनिया को कैसे तुम सुनाओगे!!
हमारे दिल में रह्ते हो, हमीं से कर रहे पर्दा
तम्मन्ना दीद की जिस रोज़ तुम चिलमन हटाओगे!!
मेरी साँसों से तेरा दूर जाना अब न मुमकिन है
तुम्हारा अक्स हूँ मैं किस तरह मुझको भुलाओगे!!
लगेगा यादों का मेला तुम्हारे दिल के आँगन में
मेरी गज़लों को अपने ही लबों पर गुनगुनाओगे!!
मेरी खामोशी को मेरी, न कमज़ोरी समझना तुम
मैं दरिया इश्क़ का हूँ तुम उतर कर डूब जाओगे!!
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

Introduction

Hi,


This is Rishi Raj.


I am head of the department [commerce] in the Aditya Birla Public School, Renukoot,Sonebhadra[ Uttar Pradesh ,India.


I am very fond of to write poems. Kindly go through my latest poem