दिल की अभिव्यक्ति

दिल की अभिव्यक्ति
दिल की अभिव्यक्ति

Monday, February 22, 2010

कु्छ भी नहीं

निगाहों ने की बातें बहुत, मुहँ से कहा कुछ भी नहीं
मेरी मोहब्बत ही मेरी ख़ता है,तेरी ख़ता कुछ भी नहीं
कभी हममें तुममें थी दोस्ती, कु्छ प्यार के लम्हात थे
फिर फ़ासला कुछ यूँ बढ़ा, बाकी रहा कुछ भी नहीं॥
बेइंताही भीड़ में, भागा किये हम किस कद्र
उम्रे सफ़र में आज़तक, हासिल हुआ कुछ भी नहीं
यहाँ मतलबों की भीड़ है, हर शख़्स परेशाँ है अब
ये मुश्किलों क दौर है, आसान सा कुछ भी नहीं ॥
बस एक मुठ्ठी ख़ाक ही, पूरी ज़िंदगी का साथ है
बस कब्र है मंज़िल मेरी, इसके सिवा कुछ भी नहीं


ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
22/01/2010

भूख़

जिस्म की भूख़ से तड़पोगे कब तलक
तुम प्यार के दरिया मे कभी डूब कर देख़ो
सिंदूर की रेख़ा को तुम शबनम न समझना
वो आग है, तुम यूं उसे मत घूर कर देख़ो
ताज़िंदगी तुम हर घड़ी मसरुफ रहोगे
लम्हों में सुकूं को ज़रा सा ढूंढ के देख़ो॥
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/01/2010

तुम सलामत रहो

तेरे नाज़ो सितम हमने सिर पर उठाये
हर इक ज़ख़्म पलकों पे हमने सजाये
कुछ ऐसी ग़मों में भी लज्जत मिली है
दुआ कर रहा हूँ, कहीं छिन न जाये॥
कई बार उमड़ी, कई बार बरसी
तेरी याद आख़ों से जब बह के निकली
ये दरिया भी अश्कों से ऐसा बना है
कि डर लग रहा है, कहीं बह न जायें॥
सिये होंठ अपने, कभी कुछ न बोले
हर इक दर्द, चुपके से हमने सहा है
मुबारक हो तुमको ज़माने की ख़ुशिंया
न कोई कभी, तुम पर अँगुली उठाये॥
कई बार गिर कर, कई बार सँभले
कई बार मंज़िल पे जाकर लुटा हूँ
न मंज़िल मिली है,न मइइयत मिली है
अब अटका है दम,और निकलने न पाये॥

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/02/2010

Thursday, February 18, 2010

अनुशासन

ख़ूब पटाख़ा फोड़े लरिका, ढूंढ- ढूंढ मास्टर पगुराये
लिये तलाशी धर-धर हारे, फिर भी लरिका दिये बजाये
सुबह शाम तक बम को ढूढे, फिर भी इक्को ढूंढ न पाये
औ बित्ती-बित्ती लरिका देख़ो,सब टीचरन का नाच नचाये॥
ऊपर फूटे नीचे फूटे, कुल बिल्डिंगवा दिये हिलाये
कौन ख़ुशी मा तुम बम फोड़े,जब तुम नंबर जीरो पाये
पहले सौ में सौ तुम लाओ, फिर हम बम फुटवाउंगा
तब जाकर कोई बात बनेगी, तुम्हरी ख़ुशी मनाउंग॥
विद्यालय विद्या का मंदिर, इहे मा विद्या ज्योति जलावा
बिना बात के बम न फोड़ो, पढ़े लिख़े मा ध्यान लगावा
अनुशासन मा रहो हमेशा, विद्यालय का मान बढ़ाओ
गर्वित मस्तक रहे तुम्हारा, अच्छा- अच्छा नंबर पाओ॥
देता हूँ आशीष तुम्हें ये, अच्छे नागरिक बन जाओ
सत्कर्मों की करो रोशनी, मानवता का दीप जलाओ
तुमको कसम सरस्वती की है,एको पटाख़ा अब न बाजे
कउनो अगर पटाख़ा छुड़िहे, विद्या उसके सिर से भागे॥

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
13/11/2008

आतंकवाद- एक यक्ष प्रश्न ?

आतंकी हमलों से दहला है दिल हिंदुस्तान का
आतंकवाद एक यक्ष प्रश्न है,भारत के सम्मान का
क्यों हम पर हमले होते हैं, क्यों बेबस जनता मरती है
क्यों अफज़ल को रुकती फाँसी,कहीँ साध्वी दुख़ सहती है॥
आतंकवादी रुकें हरकतें क्यों कानून नही बनता है
ऐसी छिछली राजनीति है, पोटा बन करके हटता है
निर्दोँषो के ख़ून से देखो माँ का आँचल लाल हो रहा
आतंकी हमलों से देख़ो भारत का अपमान हो रहा॥
किसकी संतुष्टि की ख़ातिर राजनीति ये आज हो रही
भारत का सीना हो छलनी ऐसी साज़िश आज हो रही
प्रांत वाद अब राष्ट्र वाद से ऊपर बढकर आज हो रहा
राज ठाकरे आग उगलता ग्रहमंत्री चुपचाप सो रहा॥
कुछ दिन पहले मुम्बई हित में राज ठाकरे बोल रहे
मुम्बई के गौरव पे हमला डर कर क्यो, ख़ामोश रहे
गूँगे बहरों की सरकारें इन पर फर्क नही पड्ता है
मरता केवल आम आदमी ‘नेता’ एक नही मरता है


ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
22/10/2008

हिसाब ?

हिसाब ज़ुल्म का जिस रोज़ लेने वक्त आयेगा
पड़ेगी वक्त की लाठी तो जालिम कँपकँपायेगा
लकीरें हाथ की हरदम कभी न एक सी रहतीं
सितारा आज गर्दिश में है, पर कल चमचमायेगा
नज़र आता है इक जुग़नू अँधेरी रात में मुझको
दिलासा दे रहा दीपक मेरे घर टिमटिमायेगा
चलेंगी आँधियाँ जिस रोज़ भी ज़ुल्मे ख़िलाफत की
परिंदे हाथ न आयेगें सैयाद छ्टपटायेगा
परवरदिग़ार मेरे गुनाहों को बख़्श देना
ये सर कहीं पे और झुकाया न जायेगा
बेइंताही प्यास है तेरी इनायत की
इनायत जब कभी होगी ये ‘मुफलिस’ मुस्करायेगा

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
12/10/2008

हासिल?

गर्भ पर भी खोज काफी कर चुका
भूगर्भ सारा खोल कर तू पढ़ चुका
आकाश में स्वछ्न्द विचरण कर चुका
पर म्रत्यु पे अपनी विजय न कर सका
जान ना पाया रहस्य तू म्रत्यु के आधार का
म्रत्यु तो निश्चित अटल है नियम है संसार का
खोज डाला इस जहाँ का कोना कोना
खोज न पाया मगर तू मन का कोना
पढ़ तो ली पुस्तकें मगर हासिल न पाया
आत्मा की अभिव्यकति को ना जान पाया
जान लीं बातें बहुत सी ञान और विञ्यान की
है ज़रुरत आज निज़ व्यकितत्व के पहचान की॥

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/08/2008

आखिरी हिचकी ?

आखिरी हिचकी में आखिर फैसला ये हो गया
मौत दुल्हन बन गई थी और मैं दूल्हा हो गया।
हम तो पूरी ज़िंदगी इक घर को तरसते रहे
एक तुर्बत क्या मिली बस आशियाना हो गया॥
मंज़िलों की चाह में भटका था चारों धाम में
रास्ता मिलने से पहले वक्त पूरा हो गया
कल किसी ने कान में चुपके से आके ये कहा
क्यूँ परेशाँ है जहाँ में वक्त पूरा हो गया ॥
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
25/07/1996

आसां ?

कहानी दिल की सुनाना कोई आसां नहीं
दिल को, दिल से भुलाना कोई आसां नहीं
गुज़र तो जाती है, सबकी जहाँ में कैसे भी
गमों की हद से गुज़रना कोई आसां नहीं ॥
लगी है आग कलेजे में उम्र भर के लिये
किसी के ख्वाब जलाना कोई आसां नहीं
दिया तूफान में फिर भी जलाये बैठे हैं
मौत से दिल को लगाना कोई आसां नहीं॥
चेहरे को आइने से छुपाओगे कब तलक
गुनाह खुद से छिपाना कोई आसां नहीं
दीवारें घर की गिराना तो है आसां बहुत
खून से नींव बनाना कोई आसां नहीं॥

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/06/1996

पहचान ?

वेदना संवेदना के चक्रव्यूह में फँसा
एक अनकहे प्रेम की पहचान ढूँढ्ता हूँ मैं
हैवानियत दरिंदगी के शोर में चारों तरफ़
एक अनसुनी सी प्रेम की आवाज़ ढूँढ्ता हूँ मैं ॥
खुद से लड्ता हूँ मगर,पर हारता हर रोज़ हूँ
जीतने का फिर कोई सामान ढूँढ्ता हूँ मैं
कौन जाने किस तरफ़ ये ज़िंदगी ले जायेगी
रास्तों की ज़ेहन में पहचान ढूँढ्ता हूँ मैं ॥
कब ज़ुबां खामोश हो, कब धड़कने रुक जांयेगी
आने वाले वक्त से अनजान घूमता हूँ मैं
कल चला था साथ कोई भीगी-भीगी रेत पे
जख्मों के छोड़े हुए निशान ढूँढ्ता हूँ मैं ॥
सब मिले वो ना मिला जो मुझको थोड़ा पढ़ सके
इक अदद इक प्यारा सा इंसान ढूँढ्ता हूँ मैं॥

ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”

Wednesday, February 17, 2010

फ़ुर्सत किसे?

फ़ुर्सत किसे?


अपनी- अपनी फ़िक्रों में उलझा है आदमी
यहाँ कौन है जो दर्द का एह्सास कर सके
वेदना के घाव में गहराई कितनी है
फुर्सत किसे जो बैठ के अफसोस कर सके
सच्चाई से मुँह मोड़ के बैठेंगे कब तलक
चलो जिंदगी की हम सही पह्चान कर सकें
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”