ग़ज़ल
गर्दिशों में हमदमों की भीड़ जब छंटती गई
ज़िंदगानी तब हकीकत में नज़र आने लगी
क्यों कहें,किससे कहें,कैसे कहें ये हाले दिल
ज़िंदगी अब मौत से सस्ती नज़र आने लगी !!
हम चले थे जिस तरफ़ इंसानियत को ढूढ्ने
हर तरफ़ हैवानियत बसती नज़र आने लगी
फिर समंदर में कहीं जब हलचलें मचने लगी
इक और कश्ती डूबती हमको नज़र आने लगी
ज़ेहनों से मिट रहा है अब इंसानियत का रंग
हर शख्सियत इक आग में जलती नज़र आने लगी
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
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