तेरे नाज़ो सितम हमने सिर पर उठाये
हर इक ज़ख़्म पलकों पे हमने सजाये
कुछ ऐसी ग़मों में भी लज्जत मिली है
दुआ कर रहा हूँ, कहीं छिन न जाये॥
कई बार उमड़ी, कई बार बरसी
तेरी याद आख़ों से जब बह के निकली
ये दरिया भी अश्कों से ऐसा बना है
कि डर लग रहा है, कहीं बह न जायें॥
सिये होंठ अपने, कभी कुछ न बोले
हर इक दर्द, चुपके से हमने सहा है
मुबारक हो तुमको ज़माने की ख़ुशिंया
न कोई कभी, तुम पर अँगुली उठाये॥
कई बार गिर कर, कई बार सँभले
कई बार मंज़िल पे जाकर लुटा हूँ
न मंज़िल मिली है,न मइइयत मिली है
अब अटका है दम,और निकलने न पाये॥
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/02/2010
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