जिस्म की भूख़ से तड़पोगे कब तलक
तुम प्यार के दरिया मे कभी डूब कर देख़ो
सिंदूर की रेख़ा को तुम शबनम न समझना
वो आग है, तुम यूं उसे मत घूर कर देख़ो
ताज़िंदगी तुम हर घड़ी मसरुफ रहोगे
लम्हों में सुकूं को ज़रा सा ढूंढ के देख़ो॥
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
20/01/2010
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