आखिरी हिचकी में आखिर फैसला ये हो गया
मौत दुल्हन बन गई थी और मैं दूल्हा हो गया।
हम तो पूरी ज़िंदगी इक घर को तरसते रहे
एक तुर्बत क्या मिली बस आशियाना हो गया॥
मंज़िलों की चाह में भटका था चारों धाम में
रास्ता मिलने से पहले वक्त पूरा हो गया
कल किसी ने कान में चुपके से आके ये कहा
क्यूँ परेशाँ है जहाँ में वक्त पूरा हो गया ॥
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
25/07/1996
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