लब ज़िंदगी ने क्या सिए, खामोश हो गए
हम ज़ुबान रख के भी ,बेज़ुबान हो गए
ऐसा नहीं है सारा मुकद्दर का दोष था
कुछ मेरे गुनाह भी मुझपे मेहरबान हो गए
जो गुनाह मैंने कभी किए ही नहीं थे
उन गुनाहों की सज़ा जब भोगता हूं
ये समय की मार है मैं इसलिए खामोश
मैं स्वयं ही खुद से खुद को को
सता हूं
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