कहानी खुद की
जब भी मिलती है थोड़ा दूर खिसक जाती है
मेरी मंज़िल मेरे हाथों से फ़िसल जाती है !!
कई बार आके वो ड्योढी से मेरी लौटी है
उसकी आहट से मेरी नींद उचट जाती है !!
फ़िर भी ख्वाबों यूँ पलकों पे सजा रखा है
जिनकी ताबीर में इक उम्र गुज़र जाती है !!
छुपाउँ किस तरह कुछ भी न समझ आता है
आँख तन्हाई में चुपके से बरस जाती है !!
ज़िन्दगी मिलने में कुछ वक्त लगा करता है
मौत आते हुए बिल्कुल नहीं शर्माती है !!
कहानी खुद की, कैसे मैं सुनाऊँ “मुफ़लिस’
ऐसे हालात में जब खुद पे हँसी आती है !!
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
17/04/2013
जब भी मिलती है थोड़ा दूर खिसक जाती है
मेरी मंज़िल मेरे हाथों से फ़िसल जाती है !!
कई बार आके वो ड्योढी से मेरी लौटी है
उसकी आहट से मेरी नींद उचट जाती है !!
फ़िर भी ख्वाबों यूँ पलकों पे सजा रखा है
जिनकी ताबीर में इक उम्र गुज़र जाती है !!
छुपाउँ किस तरह कुछ भी न समझ आता है
आँख तन्हाई में चुपके से बरस जाती है !!
ज़िन्दगी मिलने में कुछ वक्त लगा करता है
मौत आते हुए बिल्कुल नहीं शर्माती है !!
कहानी खुद की, कैसे मैं सुनाऊँ “मुफ़लिस’
ऐसे हालात में जब खुद पे हँसी आती है !!
ॠषि राज शंकर“मुफ़लिस”
17/04/2013
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