शिकस्त दर शिकस्त हम खाते रहे
फिर भी हँसते रहे, गुनगुनाते रहे
पड़ने दी ना कभी,माथे पे सिलवटें
बोझ दिल पे ग़मों का उठाते रहे
जीना ग़र है हमें,क्यूँ ना हँसकर जियें
अश्क आँखो में रखें,और लबों को सियें
अहले दुनिया से कोई भी शिकवा नहीं
'मुफ़लिसी'में हम अमीरी दिखाते रहे
फिर भी हँसते रहे, गुनगुनाते रहे
पड़ने दी ना कभी,माथे पे सिलवटें
बोझ दिल पे ग़मों का उठाते रहे
जीना ग़र है हमें,क्यूँ ना हँसकर जियें
अश्क आँखो में रखें,और लबों को सियें
अहले दुनिया से कोई भी शिकवा नहीं
'मुफ़लिसी'में हम अमीरी दिखाते रहे
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